अभिव्यक्ति पर हमले के खिलाफ साहित्यकारों की सुरुआत ====साहित्यकार समाज का दर्पण होता है ,उसकी जुमेदारी बनती है की वह आने वाले खतरे को भाप कर जनता को सावधान करे व् जन आन्दोलन के लिए प्रेरित भी करे .अन्यथा “कवी मार्टिन निमालकर (जर्मन कवी )ये पंक्तिया ही रह जायेगी .*पहले वे kamunisto(कमुनिस्ट ) को मारने आये , और में कुछ नहीं बोला क्योकि मै कमुनिस्ट नहीं था . फिर वे कवियों और लेखको को मारने आये , और में कुछ नही बोला , क्योकि की में कोई कवि या लेखक नहीं था . फिर वे यहूदियों को मारने आये ,और में कुछ नही बोला , क्योकि में यहूदी नहीं था . फिर वे केथोलिको को मारने आये ,और मै कुछ नही बोला , क्योकि मै तो एक प्र्रोतैस्तैत था . फिर वे मुझे मारने आये , और उस समय तक ऐसा कोई नहीं बचा था , जो मेरे पक्स में बोलता .===आपातकाल काल (१९७५ से १९७७ )की जेलों में ज्यार्जी दिमित्राफ को गभीरता से पढ़ा और उनकी यह पंक्तिया आज भी बराबर मन को कुरेदती है की “पूंजीवाद जनतंत्र के चोगे को तब तक ही धारण करता है जहा तक वह बोझ नहीं बनता अन्यथा इस लोकतंत्र रूपी चोगे को उतार कर कूड़े दान पर फेकन
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बहश-------आज भारत को मानसिक गुलामी से मुक्ति की आवश्यकता है ;इसमें दो पक्ष उभर कर आमने –सामने है ,एक पक्ष भारत की जनता को मानसिक गुलाम रखना चाहता है क्युकी उनके आंका चाहते है की जनता की नजर हमारे मुनाफे पर नहीं जाए इसलिए मिडिया,(प्रिंट,इलेट्रोनिक )व् तथाकथित बुदिजिवीयो को टुकडा डाल कर पूंछ हिलाने के लिए तेयार कर लिया गया जिसका जुमा आरएसएस व् कंग्रिसी संगठनो को दे दिया गया ,दुसरा पक्ष अभी निंद्रा में है ,ये लोग इतने चाटुकार और बातूनी है की समस्याओं से ध्यान हटा कर गलत दिशा में बहस को ले गये की “पशुओ के रिश्ते इंसानों से जोड़ने लग गये ,गाय रूपी पशु को माँ कहने लग गए .यह अकेली नस्ल ही माँ केसे बनी .परिवार के बिना संतानौत्प्ती नहीं होती ,फिर पुरे परिवार की जानकारी दी जानी चाहिए की बाप कोन है भाई कोन है बहन कोन है आदि ,फिर तो आदमी औरत दोनों की जरूरत ही नहीं है भारत में इतने फ़ालतू साधू ,सन्यासी एवं स्यामने फिरते है की बच्चे यही पैदा करले जिससे माँ को दस महीने की तकलीफ सहनी ही ना पड़े .गाय को आवारा बनाने में बीजेपी की मुख्य भूमिका रही है *में राजस्थान में रह रहा हु जहा पशुधन मुख्य है ,१९७