अभिव्यक्ति पर हमले के खिलाफ साहित्यकारों की सुरुआत ====साहित्यकार समाज का दर्पण होता है ,उसकी जुमेदारी बनती है की वह आने वाले खतरे को भाप कर जनता को सावधान  करे व् जन आन्दोलन के लिए प्रेरित  भी करे .अन्यथा “कवी मार्टिन निमालकर (जर्मन कवी )ये पंक्तिया ही रह जायेगी .*पहले वे kamunisto(कमुनिस्ट ) को मारने आये ,
और में कुछ नहीं बोला
क्योकि मै  कमुनिस्ट नहीं था .
फिर वे कवियों और लेखको को मारने आये ,
और में कुछ नही बोला ,
क्योकि की में कोई कवि या लेखक नहीं था .
फिर वे यहूदियों को मारने आये ,और में कुछ नही बोला ,
क्योकि में यहूदी नहीं था .
फिर वे केथोलिको को मारने आये ,और मै कुछ नही बोला ,
क्योकि मै तो एक प्र्रोतैस्तैत था .
फिर वे मुझे मारने  आये ,
 और उस समय तक ऐसा कोई नहीं बचा था ,

जो मेरे पक्स में बोलता .===आपातकाल काल (१९७५ से १९७७ )की जेलों में ज्यार्जी दिमित्राफ को गभीरता से पढ़ा और उनकी यह पंक्तिया आज भी बराबर मन को कुरेदती है की “पूंजीवाद जनतंत्र के चोगे को तब तक ही धारण करता है जहा तक वह बोझ नहीं बनता अन्यथा इस लोकतंत्र रूपी चोगे को उतार कर कूड़े दान पर फेकने में कोई देर नहीं लगती है “तांडव न्रत्य होने वाला है .गणेश बेरवाल मिसा बंदी .

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